*बुधू*

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रात गई बात गई। बात पुरानी हुई। सुबह बुधिया ने काला पानी के गिलास की जगह गुलाबी रंग का कागज थमा दिया। तंज भी कसा लो आ गया राम राज। मंदिर तो वहीं बनाएंगे लेकिन पानी का बिल नहीं भरा तो तुम्हें बिना पानी जम कर धोएंगे।

बुधिया को शांत करने की जनता कोशिश करते हुए बुधू ने कहा धैर्य रख! अभी तो सरकार जी ने कहा है कि पानी का पैसा वसूल नहीं करेंगे। सरकार जी को टाइम तो लगता है अपना वादा पूरा करने में। जनता का फर्ज है कि सब्र करें। पुराने लोग कहे गए है कि सब्र का फल मीठा होता है। 

फल शब्द सुनकर बुधिया का पारा आसमान चढ़ गया। बोली- प्याज टमाटर का एक-एक दाना लाने की औकात नहीं रह गई। पानी की बात कर रहे हो। वह भी ऐसे फल की जिसके लिए सिर्फ सब्र ही जरूरी है।

सांत्वना देने की कोशिश में बुढ़िया से कहा, सरकार अपनी है। अपने घर द्वार की है। घर आने का कोई बहाना तो चाहिए। राम टिकट हो या चल टिकट। राष्ट्र का भला ही तो है। 

जलकटी बुधिया भड़की और टीवी की फुलझड़ी की तरह फड़की। ये जो रोज-रोज पानी ना आने के बहाने हैं। नल बदलते हैं । नल वाले बदलते हैं। पैसे खर्च होते हैं। बजट नहीं बदलता, ठेकेदार नहीं बदलता, रिश्ते नाते निभाए जाते हैं। जनता इसी के सहारे अपने दिन काटती रहती है।

बुधिया की तर्कशीलता का कायल हूँ, लेकिन मजबूरी है। फिलहाल सरकार की मान लेता हूं। 10 की जगह 100 में जान  छूट जाए तो बुरा क्या है! आप भी सोच लीजिए। यदि आपने राष्ट्र से अपनी ताकत से कुछ नोचा खसोटा नहीं तो कोई आपको क्या देगा?

बुधू


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Govind Pundir

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