अपनो को अपनो से मिलाने की अनूठी परंपरा है “भिटोली”- डॉ भरत गिरी गोसांई

अपनो को अपनो से मिलाने की अनूठी परंपरा है “भिटोली”- डॉ भरत गिरी गोसांई
Please click to share News

गढ़ निनाद समाचार।

नई टिहरी। उत्तराखंड लोक पर्वों, त्योहारों, लोक  परंपराओं और रीति-रिवाजों को सहेजने  वाला देश का एक अग्रणी राज्य है। साल भर में यहां अनेक प्रकार के उत्सव तथा पर्व मनाए जाते हैं। उन्हीं में से एक है “भिटोली”। “भिटोली” का अर्थ है ‘भेंट करना’ अथवा ‘मुलाकात करना’। फूल सक्रांति के दिन से पूरे चैत्र माह तक चलने वाला यह उत्सव है, जिसमे हर विवाहित महिला को उसके मायके से भेंट दी जाती है।

 “भिटोली” का हर विवाहित महिला को बेसब्री से इंतजार रहता है, क्योंकि यह अनूठी परंपरा विवाहित महिला के मायके से जुड़ी भावनाएं और संवेदनाओं को बयां करती है। जब किसी बेटी अथवा बहन की शादी होती है, तो वह अपने परिवार से दूर ससुराल चली जाती है। शादी के बाद उसके जीवनसाथी भी रोजगार की तलाश में दूर शहर चला जाता है, जिससे वह ससुराल में अकेला महसूस करती है। धीरे-धीरे वह विवाहित महिला अपने दिनचर्या के कार्यों में व्यस्त हो जाती है। किंतु जब वसंत ऋतु का आगमन होता है और जंगलों में घुघूती, न्योली आदि पक्षी बोलने लगती है, तब उसे अपने मायके की याद सताने लगती है। ऐसे में उसे “भिटोली” की सौगात का इंतजार रहता है।  जिसके माध्यम से वह अपने मायके वालो से मिल सके। 

स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी ने लोकगीत के माध्यम से महिलाओं के लिए चैत्र माह की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”। “भिटौली” से जुड़ी बहुत सी लोककथाएं, दंतकथाएं प्रचलित हैं। इसमें गोरीधाना की दंतकथा बहुत प्रसिद्ध है। जोकि बहन और भाई के असीम प्रेम को बयां करती है।  कहा जाता है

कि चैत्र में भाई अपनी बहन को “भिटौली” देने जाता है। वह लंबा सफर तय कर जब बहन के ससुराल पहुंचता है तो बहन को सोया पाता है। अगले दिन शनिवार होने के कारण बिना मुलाकात कर उपहार उसके पास रख लौट जाता है। बहन के सोये रहने से उसकी भाई से मुलाकात नहीं हो पाती। इसके पश्चाताप में वह ‘भै भूखों, मैं सिती भै भूखो, मैं सिती’ कहते हुए प्राण त्याग देती है। 

कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म मे ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। पहले आगमन के साधन सीमित थे, कृषि व पशुपालन कार्य अत्यधिक थे। जिससे विवाहित महिलाओं को मायके जाने की छूट कम ही मिलती थी। विवाहित महिलाएं किसी की शादी या दुख-बीमारी में ही ससुराल से मायके  आती थी। इसलिए बुजुर्गों ने “भिठौली” प्रथा की शुरुआत की जिससे विवाहित महिलाएं साल में कम से कम एक बार मायके पक्ष वालों से मिल सके तथा उपहार स्वरूप उन्हें कुछ भेंट भी दिया जा सके। सदियों पुरानी परंपरा अभी भी निभाई जाती है। “भिटैली” में पकवान के रूप में पूरी, खीर, खजूरी, बड़े, गुड, मिश्री, मिठाई दी जाती हैं। पकवान के साथ-साथ फल तथा वस्त्र एवं सामर्थ्य अनुसार आभूषण तथा पैसे भी दिए जाते हैं। जब महिला के मायके से “भिटौली” लेकर उसके माता-पिता अथवा भाई उसके घर पहुंचते हैं तो ससुराल में त्यौहार का माहौल बन जाता है। “भिटौली” में लाई गई सामग्री को आस पड़ोस में भी बांटा जाता है। जिससे भाईचारा, सौहार्द तथा सामाजिक सद्भावना भी बढ़ता है।

समय के साथ इस परंपरा में भी बदलाव आए हैं। वर्तमान समय मैं अधिकतर लोग फोन पर बात करके, कोरियर द्वारा मनीआर्डर अथवा उपहार भेजकर इस परंपरा की औपचारिकताएं पूरी कर लेते है। पहले की तरह ढेर सारी व्यंजन बनाकर ले जाते हुए लोग बहुत कम दिखाई देते है। वर्तमान समय में हम अपने लोक पर्वों तथा पारंपरिक रीति-रिवाजों को भूलते जा रहे हैं। हमें अपने लोक पर्वों, लोकोत्सव, त्यौहार तथा रीति-रिवाजों को मनाने में गर्व होना चाहिए। 

हम सबको विलुप्त होती जा रही अटूट प्रेम, मिलन का लोक पर्व “भिटोली” की प्रासंगिकता को बनाए रखने का प्रयास करना होगा। जिससे कि आने वाली पीढ़ियां इस तरह की विशिष्ट तथा अनूठी परंपराओं से परिचित हो सकेगे तथा इनके महत्व के बारे में भी जान सकेंगे।


Please click to share News

Govind Pundir

Related News Stories