चिपको आंदोलन, वन अधिकार तथा एक छोटे-हिमालयी राज्य-उत्तराखंड की अवधारणा को लेकर गोष्ठी

चिपको आंदोलन, वन अधिकार तथा एक छोटे-हिमालयी राज्य-उत्तराखंड की अवधारणा को लेकर गोष्ठी
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गढ़ निनाद समाचार* 25 मार्च 2021।

देहरादून। “चिपको आंदोलन, वन अधिकार, तथा एक छोटे-हिमालयी राज्य-उत्तराखंड की अवधारणा” विषय पर 26 मार्च 2021 को सुबह 11 बजे उत्तराखंड प्रेस क्लब देहरादून में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया है। इस आशय की जानकारी वन अधिकार आंदोलन के प्रणेता एवं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने दी। 

किशोर उपाध्याय का कहना है कि चिपको आंदोलन में दो प्रमुख पक्ष थे- जंगल काटने वाली सरकार और जंगल बचाने के लिए लड़ते ग्रामीण। 

लेकिन इसमें एक एक तीसरा पक्ष भी था, शहरी मध्यम वर्ग के पर्यावरणविद् ,जो बिना स्थानीय समाज की आर्थिक- सामाजिक- सांस्कृतिक स्थिति को जाने समझे, पर्यावरण का झंडा बुलंद किये हुए अपनी रोटी सेक रहा था। इस तीसरे पक्ष ने चिपको आंदोलन को अलग-अलग नाम (Environmental Movement, Deep Ecology, Feminist Ecology आदि) देकर, अपने परम्परागत अधिकारों और आजीविका के इस आंदोलन को पर्यावरण का आंदोलन बना दिया। जो जनता अपनी आजीविका और  अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थी, सरकार ने पर्यावरण कानूनों की आड़ लेकर, उसके ही जंगलों में जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।  

रैणी के जंगल जिसकी रक्षा के लिए रैणी गांव की महिलाओं ने ठेकेदार की कुल्हाड़ी और सरकार की बन्दूक की भी प्रवाह नहीं की, सरकार ने उसी जंगल को नंदा देवी बायो स्फेयर के नाम से संरक्षित श्रेणी में रखकर, भुटिया समुदाय के जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जंगलों को अलग अलग नाम से संरक्षित करने और वनाश्रित समुदाय के आजीविका के साधन छीनने का यह सिलसिला पूरे उत्तराखंड को रौंद रहा है। सन 1981-82 में 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई के क्षेत्रों में हरे पेड़ों के कटान पर, 15 साल के लिए लगी रोक, आज तक अनवरत जारी है। नतीजतन चीड़ का जंगल खेतों में आ गया है। खेत बंजर हो गए हैं। जंगली जानवरों का आतंक गांवों में साफ़ दिखाई देता है।  

वन और पर्यावरण कानूनों ने पहाड़ और पहाड़वासियों का बहुत अधिक नुकसान किया है, जिसकी भरपाई करना सम्भव नहीं है।लेकिन इन कानूनों की समीक्षा करके हम, राज्य बनाने की मूल अवधारणा के साथ कुछ न्याय अवश्य कर सकते हैं।  


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Govind Pundir

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