जिन्हें पहले खत्म करने में लगे रहे और अब उन्हें बचाने की बात कर रहे हैं

जिन्हें पहले खत्म करने में लगे रहे और अब उन्हें बचाने की बात कर रहे हैं
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जब पारंपरिक अनाज सही थे, तो उन्हें लुप्त ही क्यों करवाया।

लेख:रघुभाई जड़धारी
जी हां। जो पहले उनको खत्म करने की बात कर रहे थे, आज वही उनको बचाने की बात कर रहे हैं। और एक हम थे जो पहले भी बचाने की बात कर रहे थे और आज भी बचाने की बात करते हैं। आप चक्कर में पड़ गए होंगे कि आखिर यहां कहा क्या जा रहा है, तो मैं स्पष्ट कर देता हूँ।

दरअसल मैं बात कर रहा हूं अपनी कुदरती अर्थात पारंपरिक/ परंपरागत खेती की। जिसमें सैकड़ों किस्म की फसलें उगाई जाती थी। उस समय विविधता पूर्ण फसलें उगाने से किसानों का कभी घाटा नही हुआ। सन 70 के दशक दशक में जब हरित क्रांति आई तो देश के नीति नियंता और कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विभाग और उससे जुड़े वैज्ञानिकों ने एक स्वर में कहा कि देश की आबादी का पेट भरना है तो पारंपरिक खेती अर्थात पारंपरिक अनाजों को उगाना छोड़ दो और नई वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किस्में उगाओ इससे उत्पादन अधिक से अधिक होगा। उस समय उन्होंने गांव-गांव जाकर कहा कि वैज्ञानिक तरीके से खेती करो, यदि ऐसा नहीं करोगे तो तुम पिछड़ जाओगे। पारंपरिक फसलें, पारंपरिक अनाज तो पिछड़ेपन की निशानी है। इन्हें उगाने में अपना समय जाया क्यों कर रहे हो।

इस तरह आधुनिक खेती का प्रचार और पुरानी खेती का बहिष्कार करीब ढाई दशक तक जोर शोर से चला।
बताते चलें कि 90 के दशक की शुरुआत में जब हम आधुनिक खेती के दुष्परिणामों को समझने लगे थे और बीज बचाओ आंदोलन के माध्यम से किसानों को यह समझा रहे थे कि अपनी पारंपरिक खेती अर्थात पुराने अनाजों को उगाना ना छोड़े, उसी में लाभ है। तो उस समय कम किसान इस बात को समझ पाए और अधिकांश किसान वैज्ञानिकों के झांसे में आ गए। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक तो देश के पढ़ी-लिखी बिरादरी है और यह जो कह रहे हैं, वह ठीक ही होगा। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी पारंपरिक खेती छोड़कर हाइब्रिड बीजों युक्त फसलें उगाने शुरू की। नई खेती के साथ जब दहेज़ के रूप में कई प्रकार के हानिकारक खरपतवार और नई नई बीमारियां आई तो फिर सबको अपनी पारंपरिक खेती की याद आई। तब तक हम अपनी विविधता पूर्ण पारंपरिक खेती का बहुत नुकसान कर चुके थे। पहाड़ के धान, गेहूं और कोदा, झंगोरा जैसे अनाज तथा गहथ, तुअर और जैसी दाल जो दवा का काम करते हैं वह हमारे हाथों से निकल गई। जिन अनाजों की उस समय हमने बेकद्री की, आज उन अनाजों को पाने के लिए हम तरस रहे हैं।

धीरे-धीरे जब वैज्ञानिकों को भी हमारे पुराने अनाजों का महत्व समझाया तो आज वहीं वैज्ञानिक जो उस समय पुराने अनाजों ना उगाने की वकालत कर रहे थे, आज जोर शोर से कह रहे हैं कि पुराने अनाज उगाओ। वे पौष्टिक हैं और उनमें औषधीय गुण हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि उस समय वैज्ञानिकों के कहने प लोगों ने पारंपरिक खेती करनी क्या छोड़ी कि अब गांव में अधिकांश खेत बंजर नजर आ रहे हैं। वैज्ञानिकों के कहने पर किसानों ने अपना जो नुकसान किया, उसकी भरपाई करनी असंभव है। आधुनिक खेती के नाम पर वैज्ञानिक बीच में ना आते तो वे खेती करना भी ना छोड़ते। और यदि वे खेती करना ना छोड़ते तो आज गांव में जंगली जानवरों जैसी कोई समस्या नहीं होती। अब पुराने अनाजों को खेतों में लौटाने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हुई हैं।

परंपरागत कृषि विकास योजना के नाम पर लाखों करोड़ों का बजट आवंटित किया गया है। पहले पारंपरिक खेती का जो कार्य बिना पैसे के स्वाभाविक तौर पर ग्रामीण कर रहे थे अब वह बजट खर्च करके भी नहीं हो रहा है। तभी तो हम कह रहे हैं कि पहले खत्म करने में लगे रहे और अब बचाने की बात कर रहे हैं।

परंपरागत कृषि विकास योजना की समीक्षा जरूरी?
सरकार द्वारा जो परंपरागत कृषि विकास योजना चलाई जा रही है उसका मुख्य उद्देश्य पारंपरिक फसलें: कोदा(मंडुआ) झंगोरा (सांवा) चौलाई (मारसा) आदि अनाजों को पहले की तरह प्रयोग में लाना है। जिसके लिए खूब बजट खर्च किया जा रहा है। किसानों को नहीं पता कि परंपरागत कृषि विकास योजना क्या है। परंपरागत कृषि विकास योजना के लिए प्रत्येक विकासखंड में गांव चयनित किए गए हैं और किसानों के समूह बनाए गए हैं। कृषि विभाग का दावा है कि किसानों को पारंपरिक अनाज उगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है और विवाह की इस योजना का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हो रहा है। लेकिन आप धरातल में जाकर देखेंगे तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है।

मुख्य व जरूरी बात यह है कि यदि पहले से ही बचाने की बात की जाती और उन किसानों को प्रोत्साहित किया जाता जो कोदा, झंगोरा ऊगा रहे थे, तो आज उसे बचाने की जरूरत नहीं पड़ती। और इस योजना को चलाने की आवश्यकता भी नहीं थी।



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Govind Pundir

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