गुरु पुर्णिमा पर विशेष

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गुरु की शाश्वत मित्रता एवं संरक्षण
(डॉ0 मंजु लता)

अब से लेकर चिरंतनकाल तक मैं तुम्हारा मित्र बना रहूँगा, फिर चाहे तुम निम्नतम मानसिक स्तर पर हो अथवा ज्ञान के उच्चतम स्तर पर हो। मैं तब भी तुम्हारा मित्र बना रहूँगा यदि तुम कोई गलती करोगे, क्योंकि तब तुम्हें मेरी मित्रता की आवश्यकता किसी भी अन्य समय की अपेक्षा और भी अधिक होगी।।” एक प्रसिद्ध महान् गौरव ग्रंथ ‘योगी कथामृत’ के रचयिता परमहंस योगानन्दजी के महान् गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा दिया गया ये निशर्त प्रेमपूर्ण आश्वासन, गुरु की शाश्वत मित्रता और संरक्षण का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करता है।
अपनी आत्मकथा में, अपने गुरु से भेंट की चर्चा में योगानन्दजी बताते हैं – ‘“ओ मेरे प्रिय, तुम मेरे पास आ गए!” आनंदकंपित स्वर में मेरे गुरु बंगाली भाषा में बार बार यह कह रहे थे। “कितने वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।”’ श्रीयुक्तेश्वरजी का यह आह्लाद पूर्णतया इस बात को स्पष्ट करता है कि न केवल शिष्य अपने गुरु से मिलन की अनुशंषा रखता है अपितु गुरु भी अपने चेले से मिलने के लिए समान रूप से आतुर होते हैं।
परमहंस योगानन्दजी की एक निकट ईश्वर प्राप्त शिष्या, मृणालिनी माताजी, अपनी एक लघु पुस्तिका “गुरु शिष्य संबंध”में लिखती हैं – “….. सद्गुरु ने भगवान को पाने का रास्ता पहले ही ढूँढ लिया है, इसलिए वह चेले को कह सकता है, मेरा हाथ पकड़ो मैं तुम्हें रास्ता दिखा दूँगा।” और उनका हाथ थामकर उसे ईश्वर का अभयदान मिल जाता है।
ईश्वर के उस अभयदान को प्रदान करने वाले मार्ग की खोज के लिए उत्सुकता स्वाभाविक ही है। श्रीमद्भगवद् (IV:36) में कहा गया है —-“गुरु द्वारा दी गई साधना करता हुआ शिष्य अपना विवेक रूपी भवतारक बेड़ा स्वयं ही बना लेता है।” गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक प्रविधियाँ, शिष्य के लिए भवतारक बेड़ा बन जाती हैं।” जैसे कि सर्वाधिक कारगर और लोकप्रिय, क्रियायोग की वैज्ञानिक प्रविधि मुमुक्षु को एक वायुयान मार्ग प्रदान करती है जिसमें सवार होकर वह अपने शाश्वत लक्ष्य तक पहुँच सकता है। क्रियायोग, ध्यान की वैज्ञानिक प्रविधियों का एक क्रमिक समूह है, जिसको सीखने हेतु पाठकगण योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया को yssi.org के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।
अपने शिष्य के संरक्षण हेतु गुरु में उसके बुरे कर्मों को अपने ऊपर लेने की सामर्थ्य होती है। यही नहीं ईश्वर की आज्ञा से वे समुदाय के सामूहिक कर्मों को भी अपने ऊपर लेने में सक्षम होते हैं। योगानन्दजी के शिष्य बताते थे कि एक बार कोरिया के युद्ध के दौरान समाधि की अवस्था में वे युद्धभूमि में घायल और मरने वाले सैनिकों की व्यथा को अपने ऊपर लेकर पीड़ा से कराह उठते थे।
यह जानकर संत कबीर के ये शब्द कितने सटीक लगते हैं –
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान। शीश दिये यदि गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।
आद्य शंकराचार्य ने कहा- “तीनों लोकों में गुरु का कोई समतुल्य नहीं है। यदि पारसमणि की तुलना भी गुरु से की जाए तो पारसमणि केवल (लोहे को) स्वर्ण में रूपांतरित कर सकता है। सद्गुरु के चरणों में जो आश्रय लेते हैं उन्हें गुरु अपने समान ही बना देते हैं। इसलिए गुरु निरूपम ही नहीं बल्कि आलौकिक हैं।”
गुरु पुर्णिमा की बहुत बहुत बधाई देते हुए कामना करते हैं कि ईश्वर लालसा की आपकी पुकारों को सुनकर करुणामय ईश्वर प्रबुद्ध मार्गदर्शक गुरु के रूप में आपके समक्ष प्रकट हों।


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Govind Pundir

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