शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा

- गोविन्द पुंडीर
श्रीदेव सुमन का जन्म 25 मई 1915 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद स्थित चंबा ब्लॉक के जौल गांव में हुआ था। उनके पिता श्री फरशुराम बडोनी वैद्यकी सेवा करते थे। बचपन से ही श्रीदेव सुमन में देशभक्ति की भावना गहराई से विद्यमान थी। पढ़ाई के दौरान ही वे राष्ट्रीय आंदोलनों से जुड़ गए और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे।
उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को आत्मसात किया और अहिंसा, सत्याग्रह तथा स्वदेशी को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया। वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें 15 दिन की सजा हुई। जेल से छूटने के पश्चात वे टिहरी लौटे और वहां की रियासत की तानाशाही के विरुद्ध आवाज़ उठाई।
टिहरी रियासत की जनविरोधी नीतियों, जबरन कर वसूली, दमन और नागरिक अधिकारों के हनन के खिलाफ उन्होंने जनचेतना जगाई। उनके विचारों और आंदोलनों से रियासत भयभीत हो गई। परिणामस्वरूप, 21 फरवरी 1944 को उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया।
जेल में उन्हें अत्यंत अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया। वहां के अत्याचारों के विरोध में उन्होंने 3 मई 1944 से आमरण अनशन शुरू किया, जो लगातार 84 दिन तक चला। अंततः 25 जुलाई 1944 को टिहरी जेल में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए।
उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र और समाज के प्रति समर्पित रहा। उनके बलिदान की स्मृति में हर वर्ष 25 जुलाई को टिहरी जेल आम जनता के लिए खोली जाती है, ताकि लोग उनके संघर्ष की प्रतीक बेड़ियों को देख सकें और इस अमर सेनानी को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।
श्रीदेव सुमन का बलिदान उत्तराखंड के इतिहास में एक अमिट उदाहरण बन गया है। उन्होंने न केवल अंग्रेजी शासन बल्कि अपने ही राज्य की निरंकुश सत्ता के विरुद्ध भी संघर्ष किया। आज उनका नाम प्रेरणा का प्रतीक है, विशेषकर युवाओं के लिए। यह संदेश देता है कि परिवर्तन का मार्ग केवल साहस, संघर्ष और सिद्धांतों से होकर ही संभव है।
आज श्रीदेव सुमन उत्तराखंड की चेतना, संघर्ष और लोकतंत्र की भावना के प्रतीक हैं। उनके नाम पर स्थापित “श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय” न केवल युवाओं को शिक्षा से जोड़ रहा है, बल्कि उन्हें संस्कार, सेवा और समाज की जिम्मेदारियों से भी परिचित करा रहा है।
उनकी जीवनी केवल एक क्रांतिकारी की कहानी नहीं, बल्कि यह प्रमाण है कि सत्य, अहिंसा और दृढ़ संकल्प से किसी भी अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदला जा सकता है।
: संपादक