मंजरा खाल़़…

मंजरा खाल़़…
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वचपन में जब भी गांव से श्रीनगर की तरफ आते थे; तो मैं देखता था कि गाड़ी में बैठे लगभग सभी यात्री मंजरा खाल में पहुंचते ही वहां पर लाल झण्डे में लिपटे एक लिंग को हाथ जोड़ कर नमन करते थे एवं शीष झुका कर अभिवादन करते थे। उनको देख कर मैं भी हाथ जोड़ लेता था। हालांकि मुझको इसका तार्किक एवं आध्यात्मिक अर्थ समझ में नहीं आता था।

वक्त की ट्रेन अपनी पटरी पर अवाध गति से चलती रही कुछ वक्त बदला; कुछ हम भी बदले लेकिन आस्था के बीज जो हमारे मस्तिष्क की मरुभूमि में बोये गये थे; गगनचुंबी वृक्ष बन चुके थे।
आज जब लंबे अंतराल के बाद मंजरा खाल से होकर गुजरना हुआ तो अनायास ही मन में अनगिनत खयालों में प्रतियोगिता सी होने लगी। सोचा: जो भावनाएं पालने में नवजात शिशु की भांति हिलोरें ले रही थी, उनको कागज पर अमिट कर दूं ताकि वक्त की आंधी में कहीं यह अनमोल धरोहर, जो उस समय मेंरे मस्तिष्क में घोंसला बना चुकी थी, उड़ ना जाय।

चीड़ के घने जंगलों के बीच में सुनसान लेकिन मनमोहक जगह पर प्रकृति की गोद में अवस्थित मंजरा खाल़ टिहरी गढ़वाल के लोस्तू बडियार गढ के जन मानस के लिए अटूट आस्था का एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक केंद्र है। इसे यहां के ईस्ट देव श्री घंटाकरण की कर्मस्थली के रूप में जाना जाता है। जब भी घंटाकरण देवता अपने थान स्थान से, गाजे बाजे के साथ गंगा स्नान करने सुपाणा की तरफ जाते हैं तो यहां पर विधि विधान के साथ पूजा-अर्चना होती है और पश्वा लोगों पर देवता अवतरित होते हैं।

गौरतलब है कि विगत समय में मंजरा खाल का यह सघन क्षेत्र धौड़िन्ग, छाम, पाब, चिलेडी, ग्वाड़, सिमरियाल, कोट, चोपड़ा, तुषकंडी, काण्डा,बडियार इत्यादि गांवों का जंगल हुआ करता था। मंजरा खाल से ऊपर की तरफ मालू, ग्वीरियाल़, भीमल़ के जंगलों के अतिरिक्त घास के उलि़याण प्रचुर मात्रा में हुआ करते थे, जहां से लोग पशुओं के लिए चारा एवं जलाने की लकड़ी इत्यादि ले जाया करते थे। मंजरा खाल़़ की दायी ओर मनसारी के हरे-भरे जंगल, जिस पर प्रकृति मेहरबान है,अद्वितीय सौन्दर्य का धनी इलाका है। यहां पर समीपवर्ती गांवों के मरड़े हुआ करते थे। यहां से सुदूर स्थित हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का मनोहारी दृश्य परिलक्षित होता है।

मालू़ यहां पर बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाला एक वृक्ष लता है जिसके पत्तों से लोग पत्तल एवं दोने इत्यादि बनाया करते थे। जिन पर शादी ब्याह एवं अन्य शुभ मांगलिक कार्यों में भोजन वगैरा परोसा जाता था। इसके अलावा ये मालू़ के पत्ते पूजन कार्य में भी शुभ माने जाते हैं। इन्हें मंगल पत्र भी कहा जाता है और मांगलिक कार्यों में इनके द्वारा “हल्दी हाथ; मालू पात” बहुत ही पवित्र रश्म की जाती है। गढ़वाल में कोई भी मांगलिक कार्य मालू़ के पत्तों के बिना संपन्न नहीं होता

     विगत समय में लोग हर मांगलिक कार्य हेतु इस क्षेत्र से बहुत सारे मालू के पत्ते ले जाया करते थे। गांव के सभी  लोग एक साथ बैठकर मालू़ के पत्तों से पत्तल एवं दोने (पुड़खे) इत्यादि बनाते थे जो कि मेहमानों को भोजन खिलाने में प्रयोग किए जाते थे। लेकिन आज आधुनिकता की दौड़ में लोग बाजार में उपलब्ध पत्तल, प्लेट, दोने आदि प्रयोग में लाने लग गए हैं, और मालू़ केवल शगुन के तौर पर पूजन कार्य में प्रयोग होने वाली एक साधारण सी लता रह गयी है।

   मंजरा खाल पहुंचते ही घने चीड़ के जंगल हरिवंश राय बच्चन की मर्म स्पर्शी पंक्तियां याद दिलाते हैं: 

“गहन, सघन, मनमोहक, वनतरू मुझको आज बुलाते हैं।
किंतु किए जो वादे मैंने याद मुझे आ जाते हैं।”

लोस्तू -बडियार गढ के घंटाकर्ण देवता जब भी गंगा स्नान करने सुपाणा की तरफ जाते हैं तो रास्ते में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव मंजरा खाल़़ होता है। यह यात्रा घंटाकरण, नागराजा, कलावीर, एवं देवी के निशाणो एवं चाबुक, चंवर एवं पूजन सामग्री के साथ चलती है। यहां के पारंपरिक वाद्य यंत्रों: ढोल-दमाऊ, भौन्क्वरा इत्यादि की धुन से पूरा वातावरण गुंजित होता है। जिसमें घंटाकरण  देवता के पश्वा के अतिरिक्त राढी घंडियाल, नगेला, नागराजा, ह्यूणिया, हनुमान, कालिंका, देवी एवं कलावीर के पश्वा लोग भी चलते हैं। घंटाकरण देवता मंदिर के रावल श्री दिनेश चंद्र जोशी जी सबसे आगे घंटी एवं धुपाणा लेकर मंत्रोचार करते हुये चलते हैं, जिससे सम्पूर्ण वातावरण पवित्र हो जाता है। मंजरा खाल़़ में पूजा-अर्चना होती है। पश्वा लोगों पर देवता अवतरित होते हैं और उसके बाद सुपाणा में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। लौटते समय पुनः मंजरा खाल़ में सभी देवता गण एवं यात्री एकत्रित होते हैं और यहां पर रावल जी द्वारा पुनः पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात हनुमान के पश्वा द्वारा चाबुक साधी जाती है। देव गणों द्वारा दिशा बंधन किया जाता है।
   यहां पर जब सभी यात्री आगे बढ़ जाते हैं तब ही अन्त मे घंटाकरण के पश्वा प्रस्थान करते हैं। और यह माना जाता है कि यहां से घंटाकरण का क्षेत्र शुरू हो गया है और सभी दिशाओं का बंधन कर दिया गया है और अब कोई भी विघ्नकारी, अमांगलिक आत्माएं घंटाकरण क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाएंगी। इसी कारण घंटाकरण देवता, दल के अंत में चलते हैं और सारी दिशाओं को चावल के मातम से बांध देते हैं।

 जब भी कोई बारात दुल्हन लेकर यहां से होकर गुजरती है तब सिरफल फाड़ कर प्रार्थना की जाती है; ताकि नव दंपति के जीवन में किसी प्रकार की बाधाएं प्रवेश ना करें। साथ ही जब भी कोई ब्यक्ति नया वाहन खरीद कर लाता हैं तब यहां पर सिरफल की बलि देकर अपनी आस्था ब्यक्त की जाती है और विघ्न बाधाएं न हो, ऐसा आशीर्वाद देवता से लिया जाता है।

 यद्यपि आज इस प्रथा में कुछ शिथिलता देखने को मिलती है लेकिन आज भी इस मार्ग से होकर जाने वाली सभी गाड़ियों में बैठे हुए यात्री उसी प्रकार मंजरा खाल़़ में स्थित घंटाकरण के लिंग को प्रणाम करते हैं; नमन करते हैं; अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है। ईष्ट देवता से मनोकामना पूर्ण करने की फरियाद करते हैं और मंगल मय जीवन के लिए प्रार्थना  करते है।

एक बार पुनः जब मंजरा खाल से होकर गुजरना हुआ तो भावनाओं में एक अंतर्द्वंद सा होता हुआ महसूस हुआ। इस निर्जन स्थान में बने हुए इस आस्था के मंदिर,जो कि घंटाकरण क्षेत्र का प्रवेश द्वार भी है,और इस क्षेत्र के निवासियों के रक्षक का लिंग स्थान भी है, के प्रति अनायास ही विचित्र सी अनुभूति का मन मन्दिर के प्रांगण में अंकुरण हुआ, आस्था से लिप्त संवेग, घड़ी के पेंडुलम की तरह हिलोरें करने लगी।

मानव कितना भी मॉडर्न हो जाए लेकिन उसकी जड़ें उसको स्वाभाविक रूप से अपनी तरफ खींच लेती है और उससे अपनी जड़ों को फॉलो करना ही पड़ता है, क्योंकि "Roots give Routes" की कहावत चरितार्थ होती है। यही नियति भी है और विधि का विधान भी है। यह बात भी सत्य है कि यह स्थान हमारी जन्म स्थली से जुड़ा हुआ है उसके प्रति आकर्षण एवं समर्पण स्वाभाविक है। कहा जाता है "जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
लेकिन यहां पर ब्याप्त आध्यात्मिकता की झलक, सुरम्य एवं शांत परिवेश अनायास ही मैग्नेट की तरह हमको अपनी और आकर्षित कर लेती है। इसको अपनी जन्मभूमि के प्रति लगाव या देव आस्था; जो भी नाम दे, लेकिन कोई न कोई अदृश्य शक्ति यहां पर विराजमान है जो हमको सांसारिक मोहमाया से मुक्त कर देती है;  आध्यात्मिकता की ओर खींचती चली जाती है, और अशांत मन को सुकून देती है।

मंजरा खाल; जो कि वास्तव में घंटाकरण क्षेत्र में जाने के लिए एक प्रवेश द्वार है। हमारे पुरखों द्वारा सदियों पूर्व इस वीरान स्थान पर स्थापित द्वारपाल या क्षेत्रपाल का यह लिंग आज भी यहां से गुजरने वाले हर पथिक, राहगीर एवं यात्री की रक्षा करता है और यहां पर जंगलों से घास,चारा या लकड़ी इत्यादि लेने आई बहू-बेटियों; दिशा धियाणियो की अमांगलिक आत्माओं से रक्षा करता है। आज भी लोगों द्वारा इसे पूर्ण आस्था एवं श्रद्धा के साथ पूजा जाता है।

उत्तर दिशा से आने वाले यात्रियों के लिए इसी प्रकार का एक पूजन स्थल जीबाला़ नामक स्थान पर स्थापित किया गया है,जो कि चिरबटिया से आने वाले यात्रियों की रक्षा करता है। अंतर केवल इतना है कि जीबाला़ में लिंग नहीं है। जब घंटाकरण देवता केदार धाम की यात्रा पूर्ण करके चिरबटिया के रास्ते वापस आते हैं तो वहां पर भी इन्हीं रस्मो रिवाज के साथ दिशा बंधन की जाती हैं और रावल जी द्वारा पूजा अर्चना की जाती है।

इस वीरान लेकिन नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण स्थान पर स्थापित यह लिंग एक प्रकार से घंटाकर्ण देवता के प्रतिनिधि प्रहरी या द्वारपाल के रूप में कार्य करता है। हालांकि समय के साथ यहां पर किसी प्रकार का मंदिर का निर्माण नहीं किया गया है लेकिन लोगों की आस्था आज भी बनी हुई है। कहा जाता है “फेथ इज लाइफ; डाउट इज डेथ।”
सराहनीय बात यह है कि किसी श्रद्धालू भक्त ने यहां पर वट एवं पीपल के एक-एक पौधे लगाये हैं वे लोग इन पौधों को प्रतिदिन पानी देते हैं एवं समय समय पर खाद इत्यादि देते रहते हैं। यह एक अच्छी पहल है। आने वाले दिनों में यहां पर ये वृक्ष बड़े हो जायेगें एवं वातावरण को आध्यात्मिकता की सुगंध से शोभायमान करेंगे।

-सदर कैंतुरा


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Govind Pundir

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